रहस्य-रोमांच >> दहकते शहर दहकते शहरवेद प्रकाश शर्मा
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वातावरण शहनाइयों की मधुर ध्वनि से गूंज उठा।
हर तरफ प्रसन्नता में डूबे कहकहे, प्रत्येक मुखड़े पर खुशी और सिर्फ खुशी-ही-खुशी थी।
रघुनाथ की विशाल कोठी-जो वर्षों से किसी मासूम की किलकारियों के लिए सूनी-सूनी-सी पड़ी थी। आज इस प्रकार जगमगा रही थी - मानो पूनम की रात का धुला-आकाश।
रघुनाथ भारतीय केंद्रीय खुफिया विभाग का एक होनहार जासूस था। उसका विवाह रैना से हुए काफी लंबा अरसा बीत गया था, किंतु किसी संतान ने जन्म न लिया।
लेकिन अब !
मानो विधाता ने समस्त खुशियां एक ही साथ उनकी झोली में डाल दी हों। रघुनाथ की पत्नी ने एक शिशु को जन्म दिया। दुनिया में आने वाले इस नए मेहमान के स्वागत में ही ये शहनाइयां गूंज रही थीं, कोठी दुल्हन बनी हुई थी।
बड़े-बड़े ऑफिसर्स... शहर के ही नहीं, बल्कि देश के प्रतिष्ठित व्यक्ति भी इस नए मेहमान को आशीर्वाद देने हेतु पधारे थे।
और भला ऐसे शुभ-अवसर पर विजय चूक जाए-वह स्वयं तो इस पार्टी में था ही, साथ ही अपने दोस्तों के रूप में अशरफ, विक्रम, आशा, ब्लैक व्वॉय इत्यादि को भी ले आया था।
शहर के इंस्पेक्टर जनरल, विजय के पिता, यानी ठाकुर साहब स्वयं यहां सपरिवार उपस्थित थे। यूं तो उनके परिवार में था ही कौन ? एक उनकी धर्म-पत्नी, एक दस वर्षीय बालिका और तीसरे महाशय थे विजय - जिन्हें आवारा, गुंडा और बदचलन जैसी अनेक उपाधियों से विभूषित करके घर से निकाल दिया गया था।
खैर, इस समय ठाकुर साहब भी यहां उपस्थित थे और नौकरों को फुर्ती से कार्य करने के लिए चार-बार कह रहे थे।
विजय यह भरसक प्रयास कर रहा था कि वह ठाकुर साहब के सामने न पडे।
रघुनाथ और रैना की खुशियों को यहां शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं - वे दोनों दरवाजे पर खड़े निरंतर आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। रैना की गोद में उसका नवजात शिशु था। नन्हा-सा... गोरा-सा मासूम शिशु... उसके चौड़े मस्तक पर लगा काला टीका ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो चांद में आज हल्का-सा दाग हो... नयन... मानो कलियां अभी खिली न हों। अधर ऐसे शांत-मानो गुलाब की दो पंखुड़ियां अभी आपस में आलिंगन किए हुए हों, नन्हें-प्यारे और दूध-से हाथ-पैर वह कभी-कभी हिला देता था।
मेहमान आते - उस शिशु को देखते, एक चुंबन उस मासूम के गुदगुदे कपोलों पर अंकित करके अपनी प्रसन्नता प्रकट करते और रैना की झोली मुबारकवाद के शब्दों से भर देते और फिर अपने हाथों में पकड़ा वह उपहार - जो वे इस नवजात शिशु के लिए लाते थे, पास ही खड़े एक नौकर को दे देते थे-जो उन्हें उन हजारों तोहफों में रखकर उनकी संख्या में वृद्धि कर देता था।
और जब विजय ने मुबारकबाद दी, तो उसका ढंग कुछ इस प्रकार था।
तब !
जबकि वह आया, रघुनाथ और रैना को दरवाजे पर खड़े पाया। आते ही वह कुछ इस प्रकार जोर से चीखा कि पूर्व उपस्थित समस्त मेहमानों ने चौंककर उस तरफ देखा था। ठाकुर साहब ने भी एक ओर खड़े होकर विजय की ये बेहूदा हरकत देखी थी, किन्तु खून का घूंट पीकर रह गए थे, क्योंकि अवसर ऐसा न था, लेकिन इधर विजय इन सब बातों से बेखबर उछलता हुआ आया और चीखा।
- ‘‘हैलो प्यारे, तुलाराशि !’’
क्रोध तो रघुनाथ को भी आया, लेकिन परिस्थिति ! रघुनाथ प्रत्यक्ष में मुस्कराया और बोला।
- ‘‘हैलो विजय !’’
- ‘‘अरे वाह तुलाराशि, तुमने तो कमाल कर दिया। क्या मॉडल है?’’
‘‘विजय !’’ रघुनाथ विजय की तरफ झुककर अत्यंत धीमे से फुसफुसाया - ‘‘मुझ पर रहम करो, इस समय यहां मेरे ऑफिसर भी उपस्थित हैं।’’
लेकिन वह विजय ही क्या जो ऐसे अवसर पर चुप हो जाए, वह उसी प्रकार से बोला।
- ‘‘मिस्टर सुपर ईडियट, अगर तुम हमसे बात नहीं करना चाहते तो मत करो, हम अपने भतीजे ओर भाभी से बात करेंगे...क्यों भाभी ?’’
- ‘‘आप ठीक कह रहे है विजय भैया।’’ रैना ने समर्थन किया।
- ‘‘हाँ तो आदरणीय भाभीजी, सर्वप्रथम हम अपने प्यारे-प्यारे भतीजे मियां की सेवा में ये उपहार अर्पित करते हैं।’’ विजय ने एक अत्यंत बड़ा-सा बॉक्स रैना की ओर बढ़ाते हुए कहा था।
तभी वह नौकर जो उपहार ले रहा था, लेने के लिए आगे बढ़ा, किन्तु विजय ने तुरंत हटा दिया और बोला-‘‘नहीं मियां बनारसीदास, ये उपहार हम आदरणीय भाभीजी के हाथ में ही देंगे।’’
हर तरफ प्रसन्नता में डूबे कहकहे, प्रत्येक मुखड़े पर खुशी और सिर्फ खुशी-ही-खुशी थी।
रघुनाथ की विशाल कोठी-जो वर्षों से किसी मासूम की किलकारियों के लिए सूनी-सूनी-सी पड़ी थी। आज इस प्रकार जगमगा रही थी - मानो पूनम की रात का धुला-आकाश।
रघुनाथ भारतीय केंद्रीय खुफिया विभाग का एक होनहार जासूस था। उसका विवाह रैना से हुए काफी लंबा अरसा बीत गया था, किंतु किसी संतान ने जन्म न लिया।
लेकिन अब !
मानो विधाता ने समस्त खुशियां एक ही साथ उनकी झोली में डाल दी हों। रघुनाथ की पत्नी ने एक शिशु को जन्म दिया। दुनिया में आने वाले इस नए मेहमान के स्वागत में ही ये शहनाइयां गूंज रही थीं, कोठी दुल्हन बनी हुई थी।
बड़े-बड़े ऑफिसर्स... शहर के ही नहीं, बल्कि देश के प्रतिष्ठित व्यक्ति भी इस नए मेहमान को आशीर्वाद देने हेतु पधारे थे।
और भला ऐसे शुभ-अवसर पर विजय चूक जाए-वह स्वयं तो इस पार्टी में था ही, साथ ही अपने दोस्तों के रूप में अशरफ, विक्रम, आशा, ब्लैक व्वॉय इत्यादि को भी ले आया था।
शहर के इंस्पेक्टर जनरल, विजय के पिता, यानी ठाकुर साहब स्वयं यहां सपरिवार उपस्थित थे। यूं तो उनके परिवार में था ही कौन ? एक उनकी धर्म-पत्नी, एक दस वर्षीय बालिका और तीसरे महाशय थे विजय - जिन्हें आवारा, गुंडा और बदचलन जैसी अनेक उपाधियों से विभूषित करके घर से निकाल दिया गया था।
खैर, इस समय ठाकुर साहब भी यहां उपस्थित थे और नौकरों को फुर्ती से कार्य करने के लिए चार-बार कह रहे थे।
विजय यह भरसक प्रयास कर रहा था कि वह ठाकुर साहब के सामने न पडे।
रघुनाथ और रैना की खुशियों को यहां शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं - वे दोनों दरवाजे पर खड़े निरंतर आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। रैना की गोद में उसका नवजात शिशु था। नन्हा-सा... गोरा-सा मासूम शिशु... उसके चौड़े मस्तक पर लगा काला टीका ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो चांद में आज हल्का-सा दाग हो... नयन... मानो कलियां अभी खिली न हों। अधर ऐसे शांत-मानो गुलाब की दो पंखुड़ियां अभी आपस में आलिंगन किए हुए हों, नन्हें-प्यारे और दूध-से हाथ-पैर वह कभी-कभी हिला देता था।
मेहमान आते - उस शिशु को देखते, एक चुंबन उस मासूम के गुदगुदे कपोलों पर अंकित करके अपनी प्रसन्नता प्रकट करते और रैना की झोली मुबारकवाद के शब्दों से भर देते और फिर अपने हाथों में पकड़ा वह उपहार - जो वे इस नवजात शिशु के लिए लाते थे, पास ही खड़े एक नौकर को दे देते थे-जो उन्हें उन हजारों तोहफों में रखकर उनकी संख्या में वृद्धि कर देता था।
और जब विजय ने मुबारकबाद दी, तो उसका ढंग कुछ इस प्रकार था।
तब !
जबकि वह आया, रघुनाथ और रैना को दरवाजे पर खड़े पाया। आते ही वह कुछ इस प्रकार जोर से चीखा कि पूर्व उपस्थित समस्त मेहमानों ने चौंककर उस तरफ देखा था। ठाकुर साहब ने भी एक ओर खड़े होकर विजय की ये बेहूदा हरकत देखी थी, किन्तु खून का घूंट पीकर रह गए थे, क्योंकि अवसर ऐसा न था, लेकिन इधर विजय इन सब बातों से बेखबर उछलता हुआ आया और चीखा।
- ‘‘हैलो प्यारे, तुलाराशि !’’
क्रोध तो रघुनाथ को भी आया, लेकिन परिस्थिति ! रघुनाथ प्रत्यक्ष में मुस्कराया और बोला।
- ‘‘हैलो विजय !’’
- ‘‘अरे वाह तुलाराशि, तुमने तो कमाल कर दिया। क्या मॉडल है?’’
‘‘विजय !’’ रघुनाथ विजय की तरफ झुककर अत्यंत धीमे से फुसफुसाया - ‘‘मुझ पर रहम करो, इस समय यहां मेरे ऑफिसर भी उपस्थित हैं।’’
लेकिन वह विजय ही क्या जो ऐसे अवसर पर चुप हो जाए, वह उसी प्रकार से बोला।
- ‘‘मिस्टर सुपर ईडियट, अगर तुम हमसे बात नहीं करना चाहते तो मत करो, हम अपने भतीजे ओर भाभी से बात करेंगे...क्यों भाभी ?’’
- ‘‘आप ठीक कह रहे है विजय भैया।’’ रैना ने समर्थन किया।
- ‘‘हाँ तो आदरणीय भाभीजी, सर्वप्रथम हम अपने प्यारे-प्यारे भतीजे मियां की सेवा में ये उपहार अर्पित करते हैं।’’ विजय ने एक अत्यंत बड़ा-सा बॉक्स रैना की ओर बढ़ाते हुए कहा था।
तभी वह नौकर जो उपहार ले रहा था, लेने के लिए आगे बढ़ा, किन्तु विजय ने तुरंत हटा दिया और बोला-‘‘नहीं मियां बनारसीदास, ये उपहार हम आदरणीय भाभीजी के हाथ में ही देंगे।’’
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